लोकहित और जनकल्याणकारी कार्यों की आड़ में नीतियों, कानून और नियमों से भ्रम पैदा होने लगे तब ऐसा मान ही लेना चाहिए कि "अन्धेर नगरी चौपट राजा" का युग प्रारम्भ हो चुका है"।

 



 


मैं हमेशा कहा करता हूँ कि सामाजिक, राजनीतिक और न्यायिक व्यवस्था को जब जंग लगना शुरू हो जाए। लोकहित और जनकल्याणकारी कार्यों की आड़ में नीतियों, कानून और नियमों से भ्रम पैदा होने लगे तब ऐसा मान ही लेना चाहिए कि "अन्धेर नगरी चौपट राजा” का युग प्रारम्भ हो चुका है"।


उदाहरण के लिए जब अदालतों में 15-20 साल तक यह तय करना ही संभव न हो कि कोई व्यक्ति निर्दोष है या अपराधी तो फिर कानून का अर्थ ही क्या रह जाता है ? क्या इससे यह भावना बलवती नहीं होती कि अब वक्त आ गया है कि सभी कानूनों को कचरे की पेटी में डाल दिया जाए, और जिस संविधान की हम बार-बार दुहाई देते हैं उसके दायरे में रहकर नये सिरे से कम से कम इस तरह के कानून तो बना ही दिये जाएं जिनसे व्यक्ति की गरिमा खंडित न हो, उसमें अनावश्यक भय न हो और वह स्वंय को किसी प्रकार से आतंकित ना समझे।


जब कोई व्यक्ति विशेषकर राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी किसी भी घटना को लेकर यह कहे कि "कानून अपना काम करेगा तो उसका यह मतलब होता है कि उस व्यक्ति की इतनी हैसियत और ताकत है कि वह कानून को अपने हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने का काम बखूबी कर सकता है। ऐसे में सामान्य नागरिक के लिए राम भरोसे रहने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचता। हमारे देश में निचली अदालतों के फैसले हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बदल दिये जाते हैं। इसलिए पैसों में सक्षम व्यक्ति इन अदालतों की बजाए सीधे बड़ी अदालतों का रूख करने में ही भलाई समझते हैं। क्योंकि वहाँ अभी भी न्याय की उम्मीद लगाई जा सकती है। दरअसल निचली अदालतों में जजों की संख्या से अधिक फाइलों का बोझ है। निचली अदालतों की हालत किसी बूचड़खाने से अधिक नहीं है।


यहां जजों की प्रतिष्ठा के अनुकूल न तो बैठने की उचित व्यवस्था है और न ही मुवक्किलों के लिए कोई सुविधा होती हैभीड़ का आलम ये होता है कि जज के पास पहुँचने में भी काफी मशक्कत करनी पड़ती है। निचली अदालतों के जज चार्जशीट पढ़ने की भी जहमत नहीं उठाते । सारे केस का दारमोदार पी.पी.साहब और आई.ओ पर निर्भर रहता है। बचाव पक्ष का वकील पी.पी.साहब और आई.ओ को कैसे चुप करा सकता है ये उसकी श्रद्धा शक्ति पर निर्भर करता है । वगैर आई.ओ और पी.पी. का ध्यान रखे बचाव पक्ष का वकील पानी ही भरता नजर आता है। जज साहब भी तभी मेहरबान होते हैं जब पी.पी. और आई.ओ मेरहबान हों। आपको बताते चलें कि आजकल चार्जशीट के पन्ने 5-10 हजार से लेकर 30 से 40 हजार पन्नों की भी हो सकती है। इसी तरह फैसले सैंकड़ों हजारों पन्नों तक में लिखे जाते हैं। इन चार्जशीटों और फैसलों को पढ़ना तो दूर, उनकी भारी भरकत जिल्द देखकर ही तबियत घबराने लगती हैचार्जशीट को पढ़ने की कोशिश करने भर से पता चल सकता है कि कुछेक अन्तिम वाक्यों के सिवाए उनमें पढ़ने समझने लायक कुछ नहीं होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि ज्यादा से ज्यादा 8-10 पन्नों की चार्जशीट और 15-20 पन्नों में फैसला लिखने की सीमा निर्धारित कर दी जाएजिससे समय,धन,श्रम की बचत और मुवक्किल को परेशानी से निजात मिल सके।


निचली अदालतों की मानीटरिंग का काम हाई कोर्ट के जिम्मे होता है। अपेक्षा तो यह होती है कि हाई कोर्ट आकस्मिक निरिक्षण करे। परन्तु यहाँ तो निरिक्षण की तारीखें फिक्स होती है। या फिर ऐसा कहें कि पहले ही सूचना मिल जाने के कारण सब कुछ व्यवस्थित कर दिया जाता है। न्यायपूर्ण समाज की रचना का दायित्व सरकार का है। इसके लिए उसे यदि व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन भी करना पड़े तो कोई हर्ज नहीं। वरना हम न्याय देने के नाम पर अन्याय बाँटने वाले देशों की गिनती में आ खड़े होंगे।


हम दो बड़े मुकदमों पर भी यहां चर्चा करेंगे। जिसमें एन.आई.ए जैसी संस्था की किरकिरी हो रही है। एक समय जिसे एन आई ए ने हिन्दू आतंकवाद कहकर पुकारा था, आज वो आरोप भोथरा साबित हुआ। एन.आई.ए जैसी संस्था की साख को धब्बा लगना ही कहा जाएगा। दरअसल एन.आई.ए का भी इस्तेमाल राजनीतिज्ञों द्वारा सी.बी.आई की तर्ज पर होने लगा है। ऐसा प्रतीत होता है कि सत्तासीन राजनीतिक दल अपने लाभ के लिए एन.आई.ए और सी. बी.आई जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल करते हैं। पेश मामले में 18 मई 2007 को हैदराबाद की मक्का मस्जिद में बम धमाका हुआ, जिसमें 9 लोगों की मौत हो गई थी। यह वही दौर था जब मालेगांव, अजमेर और भारत-पाकिस्तान के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में भी विस्फोट हुआ था। 09 जून 2007 को यह मामला हैदराबाद पुलिस से लेकर सी.बी.आई को सौंपा और फिर मामले की गंभीरता को देखते हुए 07 अप्रैल 2010 को एन.आई.ए को सौंपा गया । एन.आई.ए ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ व उससे जुड़े व्यक्तियों का नाम खंगालना शुरू कर दिया जैसे कि वो किसी सारगर्भित आदेश का पालन कर रही हो, हो इसी कड़ी में एन.आई.ए ने 19 नवम्बर 2010 को भगवावेश धारी असीमानंद को गिरफ्तार कर लिया। असीमानंद के बाद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर,और कर्नल पुरोहित जैसे लोगों पर भी हिन्दू आतंकवाद का ठप्पा लगा दिया गया था। शायद एन.आई.ए इससे भी आगे जाने की बात करने लगी थी तभी तो संघ प्रचारक इन्द्रेश जी और संघ प्रमुख मोहन भागवत का भी नाम विघटनकारी ताकतों में लिया जाने लगा था। लेकिन शायद सत्तासीन सरकार जानती थी कि संघ प्रमुख को गिरफ्तार करना आसान नहीं होगा।


कुछ भी हो संघ आज विश्व में सबसे बड़ी हिन्दू ताकत के रूप में अपना वजूद खड़ा कर चुका है। कर्नल पुरोहित जमानत पर बाहर हैं, असीमानंद बरी किये जा चके हैं। असीमानंद और कर्नल पुरोहित पर लगे हिन्दू आतंकवाद के दाग बरी किये जाने से मिटाने की चेस्टा की गई है। सत्तासीन सरकार के बड़े चेहरे सुशील शिन्दे, पी.चिदम्बरम, राहुल गांधी और दिगविजय सिंह और उस समय के गृह सचिव आर.पी.सिंह जो कि आज भाजपा की गोद में बैठे हैं जैसे लोगों ने संघ और उससे जुड़ी संस्थाओं के प्रति जहर उगलने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। एक नया शब्द भगवा आतंकवाद, हिन्दू आतंकवाद का जनक यू.पी.ए सरकार को कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। वास्तव में सत्ता में बने रहने के लिए ये लोग कुछ भी कर गुजरने से गुरेज नहीं करते। क्या ये देश द्रोह नहीं है ? भाजपा ने इससे भी आगे जाते हुए साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से संसद चुनाव 2019 के लिए प्रत्याशी घोषित कर एक अलग दांव खेल दिया है जिस पर विरोधी पक्ष बुरी तरह तिलमिला उठा है। यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि एन.आई.ए देश की प्रमुख जांच एजेंसी है और देश की सुरक्षा को प्रभावित करने वाले बड़े मुद्ददों की जाँच का काम ही उसे सौंपा जाता है। सी.बी.आई पर बार-बार सवाल उठते रहे हैं । एन.आई.ए भी बार-बार विफल साबित हो रही है, यह सब महज संयोग है या फिर सरकार का रंग बदलने से उसका कोई संबंध है ? क्या एन.आई.ए की छवि सुधारने के प्रयास किये जायेंगे। अगर सब कुछ इसी प्रकार रहा तो वो दिन दूर नहीं जब एन.आई. ए की छवि भी लोकल पुलिस या लोकल जाँच एजेंसी जैसी ही हो जायेगी। गुजरात हाई कोर्ट ने भी इसी दौर में एक जोर–दार फैसला सुनाते हुए भाजपा नेत्री माया बेन कोडनानी सहित 20 आरोपियों को 2002 के गुजरात राज्य में हुए दंगों के आरोपों से बरी कर दिया। जिन मुद्ददों पर सरकारें हिल गईं, उन मुद्ददों में आरोपी बरी किये जा रहे हैं।


2-जी स्पैक्ट्रम जिसके कारण मनमोहन सरकार की बली चढ़ीपूरी कांग्रेस मृतप्रायः हो गई, उसमें भी सी.बी.आई जज ओ.पी.सैनी को 8.5 साल में कोई सबूत सरकारी एजेंसियां नहीं दे पायी और अदालत को कनिमोझी और ए.राजा जैसे आरोपियों को बरी करना पड़ा। कई बार तो ऐसा लगता है जैसे अदालतों में फिक्सिंग का मैच चल रहा हो। ऐसे मामलों को देखते हुए हम यही कह सकते हैं कि कानून भी पैसा और पॉवर का खेल हो गया है। नहीं तो देश के करोड़ों गरीबों के साथ ही अन्याय क्यों? जी हां यहां हम बात कर रहे हैं गरीबों, असहायों को दी जाने वाली निशुल्क कानूनी सहायता की। आज जो हालात देश के हैं, ऐसे समय में जरूरी हो गया है कि हम कानूनी सहायता के नाम पर देश की जनता के साथ हो रहे खिलवाड़ की भी चर्चा करें.