सेनाध्यक्ष के बयान में गलत क्या है ?


सनातन परम्परा के इस देश का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है कि यहां उस इंसान के बोलने पर तो बखेड़ा खड़ा हो जाता कुर्बान कर दिया हो, लेकिन उन लोगों के मुंह बंद करने की कोई हिम्मत नहीं जुटा पाता है जिन्होंने हमेशा देश को नोचा-खसोटा दंभ भरते हैं। सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत के सीधे-सपाट बयान पर कथित बुद्धिजीवियों और तुष्टिकरण की राजनीति जाना हैरान करता है। सेनाध्यक्ष ने गलत नहीं कहा कि लोगों को गलत दिशा दिखाने वाले नेता नहीं कहे जा सकते। क्या जनता को गलत दिशा दिखाने वालों को भी नेता कहा जाना चाहिए? या वह यह कहते कि देश के टुकड़े-टुकड़े करने आजादी के नाम पर कुछ भी कहने और बोलने की पूरी छूट है ? या उनको यह कहना चाहिए था कि देश को हिंसा-आगजनी अधिकार हैं? सेनाध्यक्ष के बयान पर ओवैसी जैसे नेता, टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्य और 'अर्बन नक्सली' हो हल्ला मचाएं वर्षों से हिन्दुओं और हिन्दुस्तान को गाली देने का अपना एजेंडा चला रहे हैं। यह पाकिस्तान की भाषा बोलते हैं। रंगा-बिल्ला देश तोड़ने वाली शक्तियों के अधिकारों को लेकर चिंतित रहते हैं, लेकिन गांधी के नाम का ढिंढोरा पीटने वाली कांग्रेस के सवाल खड़ा करते हैं तो लगता है कि कांग्रेस के गांधी वह नहीं हैं जिसकी देश के 130 करोड़ लोग 'पूजा करते हैं । कांग्रेस हैं, जिनकी वह दशकों से चरण वंदना करता आया है। यह और कोई नहीं इंदिरा गांधी से लेकर राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी बात का जवाब यह परिवार कभी दे ही नहीं पाया कि उसका सरनेम गांधी कैसे हो गया। आज देश की जनता को बरगलाने कभी मंदिरों की चौखट चूमते नजर आते हैं। या फिर रात के अंधेरे में मॉ. चामुण्डा के मंत्र को ट्वीट करते हैं।कभी मंदिरों की चौखट चूमते नजर आते हैं। या फिर रात के अंधेरे में मॉ. चामुण्डा के मंत्र को ट्वीट करते हैं। बहरहाल, सेना प्रमुख तो साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने राजनीतिक रोटियां सेंकते और हिंसा का माहौल बनाते नेताओं को आईना दिखाया और बिना किसी लाग-लपेट यह भी कहा कि हमने देखा है कि कॉलेज और विश्वविद्यालयों में जो विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उनमें हिंसा हो रही है। आखिर एक जिम्मेदार पद पर बैठने के साथ सेनाध्यक्ष एक आम नागरिक भी तो हैं। क्या उन्हें देशहित में बोलने से सिर्फ इसलिए रोक दिया जाए क्योंकि कुछ देश विरोधी ताकतों को ऐसे बयानों से परेशानी होती है। यदि उन्होंने हिंसा और आगजनी करती भीड़ का नेतृत्व करने वालों को सही नेतृत्व की संज्ञा देने से इन्कार कर दिया तो विपक्षी नेताओं को बुरा क्यों लग रहा है। उन्होंने किसी का नाम तो लिया नहीं है, फिर भी अगर कुछ नेताओं को लगता है कि सेनाध्यक्ष का बयान गलत है तो ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि यह नेता जानते होंगे कि वे भी तो स्वयं उन नेताओं में शामिल हैं जो हिंसा और अराजकता के लिए लोगों को भड़का कर सड़कों पर उतार रहे हैं? आखिर बिपिन रावत क्यों न बोलें जब देश की सीमा की सुरक्षा का जिम्मा उनका है तो देश के अंदर हो रहे भीतरघात पर वो चुप कैसे रह सकते हैं। उनके बयान का विरोध करने वाले ये शायद भूल रहे हैं कि जब भी जरूरत होती है ये ही सेना देश के भीतर खराब हो रहे हालातों को सुधारने के लिए घर के भीतर भी घुस आती है। आज इसी सेना के दम पर हम मीठी नींद सोतेहैं और ये माइनस डिग्री टेंपरेचर में भी जागकर हमारी और हमारी सीमाओं की सुरक्षा करती है। अच्छा होता कि सेनाध्यक्ष के बयान पर हो-हल्ला मचाने वाले सफेदपोश और कथित बुद्धिजीवी यह बताते कि उन्होंने हिंसा रोकने के लिए क्या किया अथवा उन नेताओं के नाम उजागर करते जिन्होंने हिंसा को भड़काने की बजाए रोकने का प्रयास किया हो, लेकिन जब ऐसा नहीं हो सके तो, सबसे अच्छा यही है कि स्वयं के साथ सामने वाले के दामन को भी दागदार कर दिया जाए। अगर ऐसा न होता तो सेनाध्यक्ष का बयान एक नजीर बन जाता। इसके उलट मोदी सरकार को नीचा दिखाने के चक्कर में तमाम नेताओं/कथित बुद्धिजीवियों ने ऐसे बयान दिए जिससे आगजनी और पत्थरबाजी करने वालों के हौसले बुलंद हुए थे। मोदी सरकार के हर फैसले पर उंगली उठाने वालों को नहीं भूलना चाहिए कि वह मनमोहन सिंह की तरह देश पर थोपे हुए प्रधानमंत्री नहीं हैं। जनता ने मोदी के नाम पर वोट दिया था। उनको चुन कर भेजा था, जिन्हें यह लगता है कि सेना प्रमुख विरोध-प्रदर्शन की आलोचना कर रहे हैं उन्हें उनके वक्तव्य को फिर से सुनना और समझना चाहिए। उन्होंने सिर्फ विरोध के नाम पर फैलाई जा रही हिंसा और अराजकता की आलोचना की थी। ऐसा करना तो हर भारतीय का धर्म है। नागरिकता कानून के विरोध के बहाने जो अराजकता हुई उसने देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े किए। आखिर कोई यह सोच भी कैसे सकता है कि आंतरिक सुरक्षा पर असर डालने वाली व्यापक हिंसा पर सेना प्रमुख मौन रहें ? आखिर देश में उथल-पुथल का असर सीमाओं पर भी तो पड़ता है, पड़ोसी मुल्क जब मौके का फायदा उठाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हों तब देश में होने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना पर सीमा पर मोर्चा संभाले खड़ी सेना को भी ध्यान रखना पड़ता है। किसी भी सैन्य अधिकारी से यह अपेक्षा क्यों की जानी चाहिए कि वह इस भय से आंतरिक सुरक्षा पर असर डालने वाली घटनाओं पर बोलने से बचे कि कुछ नेता उसके बयान की मनमानी व्याख्या करके हाय-तौबा मचा सकते हैं ? चाहें बिपिन रावत हों या फिर उनसे पहले अथवा बाद में आने वाले सेनाध्यक्षों से तो यह अपेक्षा बिलकुल भी नहीं की जानी चाहिए कि वह मूक दर्शक बने रहें। राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित करने वाले हर मसले पर बेबाकी से बोलने का अधिकार सेनाध्यक्ष को होना ही चाहिए, जो नेता सेना प्रमुख को यह नसीहत दे रहे हैं कि उन्हें संभल कर बोलना चाहिए उन्हें सबसे पहले यह देखना चाहिए कि वे खुद कितना संभल कर बोलते हैं ? कोई विपक्षी नेता यह कहता है कि नागरिकता कानून के विरोध में अराजकता नहीं फैलाई गई तो यह सफेद झूठ ही नहीं, देश की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश भी है। बिपिन रावत ने इसी कोशिश को इशारे से बेनकाब किया है। इससे कोई तिलमिला जाता है तो यह उसकी मजबूरी समझनी चाहिए। सेनाध्यक्ष कोई जंग वाली भाषा तो नहीं बोले, वह तो उस शांति की बात कर रहे थे जो हर सच्चा देशभक्त चाहता हैगांधी भी तो यही चाहते थे कि देश में अमन रहे। मगर गांधी के कथित भक्तों को क्या कहा जाए, जो मुंह में गांधी और दिमाग में 'गंदगी' लेकर घूमते हैं।खैर यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि सेना या सेनाध्यक्ष को लेकर पहली बार हो-हल्ला नहीं हो रहा है, जब भी किसी को ओछी राजनीति करना या सियासी रोटियां सेंकनी होती है तो वह सेना को निशाना बनाने से चूकता नहीं है। कांग्रेस की दिवंगत नेता और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सुपुत्र संदीप दीक्षित तो सेनाध्यक्ष को सड़क छाप गुंडे तक की उपमा दे चुके हैं। इसी प्रकार आर्मी चीफ बिपिन रावत ने 15 फरवरी 2017 को जब चेतावनी भरे लहजे में कहा था कि कश्मीर में आतंकवादियों के खिलाफ सेना के ऑपरेशन्स में बाधा डालने वालों को आतंकवादियों का सहयोगी समझा जाएगा और उनके खिलाफ भी कार्रवाई की जाएगी तब जनरल रावत के इस बयान पर राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि पिछले साल 100-200 बच्चों की आंखें चली गईं। यह कहना कि हम कश्मीर के बच्चों को पकड़ लेंगे, इसे देश के लोग पसंद नहीं करेंगे। इसी तरह से कांग्रेस सांसद रंजीता ने सेना की कार्यशैली पर विवादित बयान देते हुए कहा था कि भारतीय सेना ऐसे ही हमारे भाइयों को नहीं मार सकती। हद तो तब हो गई जब पूर्व केन्द्रीय गृह मंत्री पी.चिदंबरम ने यहां तक कह दिया कि सेनाध्यक्ष बिपिन रावत ने अपनी सारी सीमायें लांघ दी हैं, लोगों को इनका समर्थन नहीं करना चाहिए। सपा नेता आजम खान को तो जैसे सेना को लेकर विवादित बयान देने में महारथ हासिल हो। वह कारगिल युद्ध की व्याख्या करते हुए यहां तक कह चुके थे कि कारिगल की चोटी पर तिरंगा फहराने वाला सैनिक मुस्लिम था। इस पर आजम की काफी किरकिरी हुई थी, क्योंकि भारतीय सेना का स्वरूप पूरी तरह से धर्मिनरपेक्ष है, इसे जातियों के बंधन में कभी नहीं बांटा गया। इसी प्रकार आजम ने अप्रैल 2017 में उस समय भी सेना पर उंगली उठाई थी, जब छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमले में महिला नक्सलियों ने घात लगाकर सीआरपीएफ के जवानों पर हमला बोल दिया था और हमले के दौरान महिला नक्सलियों ने सैनिकों के गुप्तांग काट लिए थे। इस पर आजम खान ने सेना को लेकर अमर्यादित बयान देते हुए कहा था कि जहां सेना रेप करती हैए वहां सेना के जवानों के साथ ऐसा होता है।


लब्बोलुआब यह है कि हमारे नेताओं को अपनी सियासी जंग जीतने के लिए सेना का सहारा नहीं लेना चाहिए। सेना को विवाद में घसीट कर उसका मनोबल तोड़ना एक देशद्रोही कदम है। इसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम हैसरकार को ऐसे कानून बनाने चाहिए जिससे सेना के खिलाफ अनाप-शनाप बोलने वालों पर कानूनी शिकंजा कसा जा सके। सेना या सैनिक के पराक्रम को विवादों में नहीं घसीटना लोकतांत्रिक रूप से भी काफी जरूरी हैममता सरकार के एक मंत्री पार्थ चटर्जी ने जून 2017 में कश्मीर में एक पत्थरबाज को जीप के बोनट से बांधने वाले मेजर गोगोई को सम्मानित करने के लिए सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत की तुलना जलियांवाला बाग में निहत्थों पर गोलियां बरसाने का आदेश देने वाले अंग्रेज अफसर जनरल डायर से कर डाली थी। पार्थ चटर्जी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि जम्मू-कश्मीर में सेना वैसे ही नये आइडियाज अपना रही है, जैसे जलियावाला बाग में जनरल डायर ने किया था। 27 मई 2017 को केरल सीपीएम सचिव कोडियारी बालकृष्णन ने सेना के खिलाफ बेतुके बयान में कहा था कि सेना को यदि पूरी शक्ति दे दी जाती है, तो वे कुछ भी कर सकते हैं। सेना के जवान किसी महिला का अपहरण और रेप कर सकते हैं, किसी को भी गोली मार सकते हैं, लेकिन किसी को उनसे सवाल करने का हक नहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो 2 दिसंबर 2016 को पश्चिम बंगाल में हुए सैन्य अभ्यास को तख्तापलट करने की कोशिश करार दे दिया था। एक ट्वीट में उन्होंने पूछा था कि क्या सेना तख्ता पलट की कोशिश कर रही है? ममता ने ट्वीट करके यह भी कहा था कि जब तक सेना नहीं हटाई जाएगी तब तक वह सचिवालय के बाहर नहीं जाएंगी। हालांकि रक्षा मंत्री मनोहर पर्राकर ने सफाई देते हुए कहा था कि ये एक रूटीन अभ्यास था और राज्य प्रशासन को इसके बारे में पहले से सूचित किया गया था। कन्हैया कुमार ने मार्च 2016 में भारतीय सेना के खिलाफ विवादित बयान दिया था। कन्हैया ने भारतीय सेना के जवानों पर आरोप लगाया था कि कश्मीर में सेना सुरक्षा के नाम पर महिलाओं से बलात्कार और उन पर अत्याचार करती है।