" यह कैसा न्याय", ? जहां जज भी अपने आपको सुरक्षित नहीं पाते हों ?


 


" यह कैसा न्याय", मरीजों को जीवन देने वाले डॉक्टर उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में आते हैं । मेडिकल नैग्लीजेंसी का नाम देकर डॉक्टर के खिलाफ उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत कार्रवाई किये जाने का प्रावधान है। जबकि वकील यदि मुकदमे की पैरवी ठीक ढंग से नहीं करता या उसको कानून का पर्याप्त ज्ञान नहीं है तो क्या उसके खिलाफ कहीं कोई मुआवजा दिये जाने का प्रावधान है ? कतई नहीं, वकील साहब फौरन पल्ला झाड़ लेते हैं कि उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने तो आखिरी दम तक कोशिश की लेकिन क्या कर सकते हैं ? जबकि यही बात किसी अस्पताल या डॉक्टर द्वारा कही जाती तो उसके खिलाफ मुकदमा दायर किया जा सकता हैहमारे समाज में न्याय व्यवस्था की जो हालत आज के दौर में है वो किसी से छिपी नहीं है। लेकिन कानून बनाने वाले माननीय भी क्या करें ? सरकारों में भी लाखों की फीस लेने वाले वकील शामिल हैं, वो ऐसा कानून कैसे बनाने देंगे न्यायालयों की हालत इतनी खराब है कि 12 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने वाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि लोकतंत्र खतरे में है। चारों माननीय कहते हैं कि उच्चतम न्यायालय में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा उच्चतम न्यायालय के इतिहास में पहली बार चार न्यायाधीशों ने बागी रूख अपनाते हुए आरोप लगाया कि देश की सर्वोच्च अदालत की कार्यप्रणाली में प्रशासनिक व्यवस्थाओं का पालन नहीं किया जा रहा। मुख्य न्यायाधीश द्वारा न्यायिक पीठों को सुनवाई के लिए मुकदमे मनमाने ढंग से आवंटित करने से न्यायपालिका की विश्वसनियता पर दाग लग रहा है। चारों जस्टिस क्रमशः जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस जे.चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, और जस्टिस मदन लोकुर थे। इस विषय को लेकर अनेक राजनेताओं और पूर्व जजों की टिप्पणियां भी देश के तमाम समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई। लेकिन सरकारी नामचीन वकील उज्जवल निकम ने कहा कि यह न्यायपालिका के लिए काला दिन है। सुप्रीम कोर्ट के जजों की प्रेस कांफ्रेंस एक गलत मिशाल का कारण बनेगी। इससे कानून पर से लोगों भरोसा डिगेगाहर कोई कोर्ट के फैसले को शंका भरी नजरों से देखेगा। इस घटना को निचली अदालतों के लिए भविष्य में नजीर नहीं बनने देना चाहिए । मैं मानता हूँ कि जजों द्वारा उठाये गये मुद्दे गंभीर किस्म के हैं लेकिन उन्हें हल करने के लिए यह तरीका सही नहीं है । वे इस मामले को राष्ट्रपति के सम्मुख ले जा सकते थे। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज पी.बी.सावंत ने कहा कि इन जजों का मीडिया के सामने आने के लिए मजबूर होना एक अप्रत्याशित घटना है। इससे यह प्रतीत होता है कि कहीं कोई बड़ा मामला है। चाहे वह मुख्य न्यायाधीश से जुड़ा हुआ हो या फिर कोई आंतरिक मामला हो कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य यह है कि हमारी न्याय व्यवस्था पूरी तरह पंगु हो चुकी है। हम न्याय की कुर्सी पर बैठे सभी विद्वान न्यायाधीशों से स्वतंत्र, निष्पक्ष न्याय की उम्मीद नहीं कर सकतेमेरा तात्पर्य संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचाना कतई नहीं है,



मेरा उद्देश्य मात्र इतना है कि जहां हम हैं अपने आपको विकसित देशों की रौं में शुमार करना चाहते हैं, वहीं हम आज भी क्यों 1947 के कानून रहे है। संविधान द्वारा प्रदत्त कानून में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है, जिसे हम नकार नहीं सकते__ आये दिन वकीलों, शिक्षाविदों और कर्मकारों का सड़कों पर उतरना, और फिर 2019 का नवम्बर माह दिल्ली पुलिस ने भी अपनी सुरक्षा की गुहार लगाते हुए दिल्ली पुलिस मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन कियाइतिहास में दर्ज होने लायक वाक्या है, जब दिल्ली पुलिस और तीस हजारी न्यायालय के वकील इस तरह अपराधी ग्रुप लड़ रहे हों। तीस हजारी न्यायालय की दीवारें आज भी इसका साक्ष्य हैं।


क्या अब भी आपको नहीं लगता कि देश के कानून में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है