कोरोना काल में विसंगतियों के लिए कौन जिम्मेदार ?

 



     डॉ. नरेश कुमार चौबे।


20 मार्च 2020 मैं दिल्ली से अपने गंतव्य के लिए निकल रहा था। पत्रकार जगत से जुड़े होने के कारण अंदाजा तो लगा ही सकता था कि अब दिल्ली कार्यालय का ताला जल्दी नहीं खुलने वाला । क्योंकि देश के प्रधानमंत्री के क्रियाकलापों या यों कहें कि उनकी कार्य करने की शैली से अभिज्ञ हो चुका था। 21 मार्च को जनता कर्फयू लागू कर दिया गया, और फिर 23 मार्च से देशभर में लॉक डाउन ! ये कहा जा सकता है कि केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने देश की जनता की भरपूर सहायता करने की कोशिश की लेकिन क्या इस अफसरशाही और लाल फीताशाही में सरकारी मदद सही दरवाजों तक पहुंच पाई।


ये कहना उचित ही होगा कि सरकारों ने तो खरबों रूपये मदद के नाम पर लुटा दिये लेकिन इस महामारी के दौर में भी भ्रष्टाचार का घिनौना खेल खेला गया। जहां कुछ लोगों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए लंगर लगाये, घर-घर राशन पहुंचाया, वहीं अनेकों भ्रष्ट चेहरों ने अपनी दुकानें भर डाली। उनकी तो जैसे इस महामारी में बम्पर लॉटरी निकल आयी हो। राशन दुकानदारों ने मुफ्त राशन का जमकर लाभ उठाया। ग्राम प्रधानों ने राहत सामग्री बांटने के स्थान पर अपने चहेतों तक ही सीमित रखी। खाकी ने भी अपना धन्धा बन्द होने की खुन्नस बूढ़े, बच्चों पर लाठियां भांज कर निकाली। खाकी द्वारा लोग सड़कों पर मुर्गा बनाये जाते रहे, सरकारें उनकी वाह-वाही में मशगूल रहीं। 
कुछ लोग देश में भामाशाहों की भूमिका अदा कर रहे थे तो कुछ लोग कंगलों से उनके कफनों का भी सौदा कर रहे थे। देश में खाकी ने कुछ अच्छा भी किया है लेकिन वो गिनती के लोग रहे होंगे। कुछ जिलाधिकारी मंगेश कुमार जैसे रहे होंगे लेकिन हर कोई मंगेश कुमार थोड़े ही ना हो सकता है। राजनीति का खेल भी कुछ कम नहीं था। ऐसे महामारी के दौर में भी रिलीफ फण्डों पर सवालिया निशान लगाये जा रहे थे। मजदूरों को भड़काया जा रहा था। ये कहना गलत नहीं होगा कि कुछ राष्ट्रविरोधी ताकतें जो कि देश के अन्दर सक्रिय है अपना झण्डा बुलन्द करने में लगी हुयी थीं वो चाहती थीं कि देश की जनता सड़कों पर उतर आये और केन्द्र की मोदी सरकार की टांग खींचने का मौका मिल जाए, कोशश तो भरपूर की गई, दिल्ली बार्डर हो या उत्तर प्रदेश बार्डर या फिर मुम्बई का मजदूरों का रैला। लेकिन प्रयास सफल नहीं हो पाये। 
लगातार दो महीने से कुछ अधिक का लॉकडाउन, मानवीय जीवन पूरी तरह बिखरने लगा था, शायद सरकारों को भी अंदाजा होने लगा था, तभी तो अनलॉक की घोषणा की गई। देश की जनता परेशान हो गई थी। काम-धन्धे पूरी तरह चौपट हो गये, लेकिन सरकारें मुफ्त राशन और सरकारी खातों में 500/- रूपये डालने में मशगूल रहीं। देश के तथाकथित भामाशाह गरीबों और भूखों की चिन्ता करते नजर आ रहे थे। वहीं कुछ लोग इस महामारी में भी अपनी जेबें भरते नजर आ रहे थे। सतर्क निगाहें ये तो तलाश रहीं थीं कि कौन मुफ्त का राशन अपने घरों में जमा कर रहा है, कौन मजदूर दो-दो जगह से राशन और खाना ले रहा है। लेकिन ये देखना भूल गई थीं कि इस महामारी की आड़ में कौन सा नया भ्रष्ट तंत्र पनप रहा है। जमाखोरों ने जमकर फायदा उठाया, हालांकि कुछ क्षेत्रों में सरकारी तंत्र ने जमाखोरों के धन्धों पर अंकुश लगाने की भी कोषिश की, लेकिन वो कितनी कारगर रही। सरकारी अस्पताल बेहद अभाव में भी अपना काम करते नजर आ रहे थे। वहीं प्राइवेट अस्पताल, नर्सिंग होम जांच के नाम पर सौदेबाजी कर रहे थे। कुछ बड़े अस्पतालों ने तो कोरोना इलाज के लिए वाकायदा तीन कैटेगिरी बना ली थी, जहां लाखों में ईलाज के लिए फीस वसूली जा रही थी और वसूली जा रही है। देश के प्रधानमंत्री बराबर अपील करते रहे कि इस लड़ाई को हमसब को मिलकर लड़ना है। लेकिन जो लोग आवष्यक सेवाओं के नाम पर खुले हुए थे वो जमकर लूट मचा रहे थे। 
हमारे प्रधानमंत्री हर बार कहते हैं कि हमने 30 करोड़ जन-धन खाते खुलवाये, वो खाते किन लोगों के थे। खरबों रूपये का राशन बांटा गया, आखिर वो गया कहां ? एक सवाल और भी है कि हम देश की जनता को घर बैठाकर कब तक खिलाते रहेंगे ? देश में बेरोजगारों की लम्बी कतारें हैं, हमने लॉकडाउन के नाम पर करोड़ों लोगों को बेरोजगारों की श्रेणियों में ला दिया। क्या फिर से जन जीवन ढर्रे पर जल्दी ही आ जायेगा।


केन्द्र सरकार ने लॉकडाउन सम्भवतया इसलिए किया था कि हम लॉकडाउन के समय में अपनी स्वास्थ्य सेवाओं में देश की जनता के हिसाब से विस्तार कर लेंगे, और किया भी। लेकिन देश की जनसंख्या को देखते हुये ये पर्याप्त साबित नहीं हुआ। हमने जिन प्राईवेट नर्सिंग होम, अस्पतालों को मुफ्त दामों पर सरकारी जमीनें आवंटित की हुयी हैं उन्होंने इस महामारी के समय में कितना साथ दिया ये प्रष्न विचारणीय है।  सरकारें बखूबी अपना काम कर रही हैं, लेकिन जो बीच का तंत्र है वो क्या ईमानदारी से अपना काम कर रहा है ? सरकारी तंत्र आम आदमी के साथ अछूतों जैसा व्यवहार क्यों करता है ? जबकि उसे रखा ही इन लोगों के लिए गया है।
   
अब हम बात करते हैं देश की राजधानी दिल्ली की ! दिल्ली जहां देश की राजधानी है वहीं केन्द्रशासित प्रदेश भी है। दिल्ली में सात लोकसभा क्षेत्र हैं और मजेदार बात है कि दिल्ली में सातों की सातों सीटों पर भाजपा का कब्जा है। भाजपा के कद्दावर नेता डॉ. हर्षवर्धन चांदनी चौक संसदीय क्षेत्र से भाजपा के सांसद हैं, उन्होंने धीरपुर वार्ड को गोद भी ले रखा है लेकिन धीरपुर वार्ड में कितना काम हुआ है ये वहां की जनता ही बता सकती है, आदर्श वार्ड तो आज तक नहीं बना और न ही बन सकता है। इसकी अनेकों तकनीकी वज़ह हैं जो कि निगम पार्षद ही बता सकते हैं। डॉ. साहब अच्छे वक्ता हैं, भाजपा के कर्मठ कार्यकर्ता रहे हैं। लेकिन पार्टी का काम करें या फिर क्षेत्र में, ये ही कंठकीर्ण मार्ग है। केन्द्र में मंत्री हैं पिछले कार्यकाल में चतुर्वेदी से टकराव के कारण मंत्री पद गंवाना पड़ा था इसलिए सोच समझ कर पैर रखते हैं। अब तो माशाअल्लाह वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाईजेशन में भी मनोनीत किये गये है। लोकल राजनीति गरिमा भंग करती है इसलिए लोकल लोगों से देरी ही बनाये रखते है।
मनोज तिवारी ‘उर्फ’ मुदुल बुराड़ी संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं। उन्हें पूर्वांचल और ऊपर से सेलीब्रेटी होने के कारण ये सौभाग्य प्राप्त हुआ कि भाजपा षीर्षस्थ से नजदीकियां बढ़ी और टिकट पा गये। टिकट ही नहीं दिल्ली प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष भी बना दिये गये, जो कि उस समय शायद आवष्यकता भी थी क्योंकि केजरीवाल का प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा था, जिसे दिल्ली भाजपा टीम रोक नहीं पा रही थी। केजरीवाल टीम का प्रभाव दिल्ली की अनाधिकृत बस्तियों, जे.जे.स्लम और निम्नवर्गीय तबके में ढंग से पैंठ बना चुका था। साथ ही केजरीवाल ने पूर्वांचल और बिहार को अपनी पार्टी में मौका देकर जो दांव खेल रखा है उसकी काट मनोज तिवारी को माना गया था। दिल्ली के भाजपा कार्यकर्ताओं को भी लगा कि मनोज तिवारी ही दिल्ली में भाजपा की नैय्या पार लगा सकते हैं। मनोज तिवारी भी षुरूवाती दौर में दमदारी से दिल्ली की राजनीति में उतरे थे। जहां केजरीवाल टीम से उनका सामना था तो दूसरी ओर दिल्ली के दिग्गज जो कि दिल्ली में मुख्यमंत्री का सपना पाले हुए हैं से भी दो-दो हाथ करने पड़ रहे थे। जबकि भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने दिल्ली भाजपा टीम के टकराव को देखते हुए विजय गोयल जैसे नेताओं को केन्द्रीय टीम में हिस्सेदार बना लिया था लेकिन मनोज तिवारी की लड़ाई अपनों से ही कमजोर पड़ गई थी। जिसका नतीजा भाजपा को दो बार दिल्ली विधानसभा चुनाव में करारी हार के रूप में देखना पड़ा। 
दिल्ली बाहरी क्षेत्र से मशहूर गायक कलाकार हंसराज हंस को संसद में भेजकर सीट तो बढ़ाई लेकिन कितना कारगर है हंस की जीत ये तो दिखाई दे रहा है। वहीं पूर्वी दिल्ली से गौतम गंभीर। दिल्ली में सात लोकसभा सीट हैं और सातों सीटों पर भाजपा का कब्जा है , ऐसे में ये कहना उचित ही होगा कि भाजपा दिल्ली के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से बच नही सकती। दिल्ली एक केन्द्रशासित प्रदेश है, जहां केन्द्र का सीधे-सीधे दखल रहता है ऐसे में दिल्ली सरकार को  भी लचीला रूख अपनाते हुए केन्द्र सरकार से समन्वय वाली स्थिति में रहना पड़ता है।  दिल्ली के लोकप्रिय सांसद रमेश विधूड़ी हमेशा फेसबुक और इंस्टाग्राम पर छाये रहते हैं। जहां राहत सामग्री बांटते हुये अपनी तस्वीरें पोस्ट करने में मशगूल रहते हैं। दरअसल जबसे सोशल मीडिया एक्टिव हुआ है, राजनेताओं ने भी उसे अपना हथियार बना लिया है। शायद बॉलीवुड की सत्याग्रह और राजनीति जैसी फिल्मों से प्रभावित होकर। 
हमारी राजनीति एक भ्रष्टतम राजनीति होती जा रही है। आजादी के सत्तर वर्षों में चन्द गिनती के ही राजनीतिज्ञ हैं, जिनके उदाहरण दिये जाते हैं। क्या केवल चन्द लोग ही देश के संसाधनों का उपयोग करते हैं। क्यों नहीं प्रत्येक नागरिक देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता। हम पूरी जिन्दगी अपने लिए जीते हैं, क्या 24 घण्टे में 2 घण्टे भी गम्भीरता से देश के लिए जीते है। हम देश और देश की प्रगति के प्रति स्वंय गंभीर होना नहीं चाहते, सरकारों की ओर मुंह बांहे देखते रहते हैं कि ये काम तो सरकार का है वो करेगी । ऐसा क्यों है ? इस कोरोना काल में भी देश की आधी आबादी का यही हाल था कि सरकार हमारे लिए क्या कर रही है ? कभी आप भी सोचें कि आप देश के लिए क्या कर रहे हैं ? मेरा देश मेरा परिवार है ऐसा आभास होना ही चाहिए। भारतीय संस्कृति ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम, कृणवन्तों विश्वमार्यम’’ का सन्देश देती है। देश के प्रत्येक नागरिको को ये ध्यान में रखना होगा कि देश सुरक्षित है तभी हम सुरक्षित होंगे। ये तभी संभव हो सकेगा जब हम सरकारी संसाधनों पर आश्रित होना छोड़ देंगें। स्वंय को सबल बनायेंगे। स्वंय रोजगार स्रजित करेंगे, रोजगार देने वाले बनेंगे, बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं खड़े होंगे। 
केन्द्र और राज्य सरकारें बेरोजगारी दूर करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र में तरह-तरह की योजनाएं लाती है, उनसे हमें लाभ उठाना होगा। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों को भी ये ध्यान में रखना होगा कि जो योजनाएं वो देश के नागरिकों के लिए लाई हैं क्या ब्यूरोक्रेट्स आम जनता तक उस योजना को ईमानदारी से पहुंचा रहे है। देश के पास सरकारी अमले की कमी नहीं है, केवल सरकारी अमले में जनभावना को जाग्रत करना होगा। क्योंकि जो योजनाएं देश के प्रत्येक नागरिक के लिए बनती है, वो चन्द लोगों में ही सिमट जाती हैं या यों कहें कि कागजों में ही दम तोड़ देती हैं। जहां वास्तव में लाभ मिलना चाहिए वहां तक तो पहुंच ही नहीं पाती। 
यही हाल कोरोना जैसा महामारी के काल में भी हुआ है और हो रहा है। जिन कान्धों पर जिम्मेदारियों के बोझ डाले गये वो अपना घर भरने में लगे रहे। हमेशा सीमित संसाधनों का रोना रोते रहते हैं, लेकिन संसाधन बढ़ाने पर गंभीरता से विचार नहीं करते। मेरा मानना है कि संसाधन सीमित अवश्य हैं लेकिन सीमित संसाधनों में भी बंटवारे की नियत ईमानदार हो तो कोई भूखा ना रहे। हो सकता है भरपेट ना मिले लेकिन जीने लायक तो मिल ही सकता है। वैसे तो ना ही साधन सीमित हैं और ना ही संसाधन ! कमी है तो केवल अपनी जिम्मेदारियों को एक आदर्श नागरिक बनाने की।