कोरोना जैसी महामारी में भी सियासतदान सियासत करने से बाज नहीं आ रहे

डॉ. नरेश कुमार चौबे । विश्व कोरोना जैसी महामारी से जूझ रहा है, अपना देश भी इससे अछूता नहीं है। ये ठीक है कि भारत देश में कोरोना का कहर आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ा रहा है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनके सहयोगियों की ही दूरदर्शिता का परिणाम है कि देश इस महामारी के दौर में भी टिक कर खड़ा है। देश की जनता एकजुट होकर नरेन्द्र मोदी के प्रयासों की सराहना कर रही है। लेकिन जब उनकी ही पार्टी के सांसदों, विधायकों की ओर देखते हैं, तब लगता है कि इस महामारी के दौर में भी भाजपा के कुछ दिग्गज कहे जाने वाले लोग ऐसे समय भी राजनीति करने से बाज नहीं आ रहे।


आज दिनांक 01 जून 2020 को दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने प्रेस को संबोधित करते हुए पांचवें लॉक-डाउन में ढील दिये जाने के संबंध में बताया, साथ ही दिल्ली राज्य की सीमाओं को एक सप्ताह के लिए बन्द करने की घोषणा कीजिसके पीछे उनका तर्क था कि दिल्ली में जो स्वास्थ्य सेवाएं हैं वो सीमाएं खुली रहने के कारण चरमरा सकती हैं, जो काफी हद तक सही भी है। उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली में संपूर्ण देश के लोग निवास करते हैं, इसके अलावा अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं होने के कारण अन्य राज्यों के लोग भी चाहते हैं कि दिल्ली के हस्पतालों में इलाज कराया जाए । यही वजह है कि दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं पर वज़न पड़ जाता है। जिस कारण दिल्ली वालों को भी परेशानी का सामना करना पड़ता है। साथ ही उन्होंने दिल्ली की जनता से सुझाव भी मांगे कि उन्हें बार्डर सील करने चाहिए कि नहीं। जिसके लिए शुक्रवार तक का समय दिया गया।


केजरीवाल के प्रेस संबोधन के तुरंत बाद ही उनके बयानों को लेकर तमाम टी.वी.चौनलों पर गर्मागरम बहस शुरू हो गई। जो कि केवल और केवल केजरीवाल सरकार को घेरने की कवायद खी है दिल्ली की जिम्मेदारी इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि दिल्ली देश का केन्द्र है। 31 मई को लॉक डाउन को 67 दिन हो गये हैं। देश की अर्थव्यवस्था भ कि अर्थव्यवस्था को कैसे पटरी पर लाया जाए, और शायद केन्द्र सरकार कर भी रही है।


लेकिन उनके कुछ नुमाइंदों की मैं तस्वीर पेश करने का प्रयास कर रहा हूँ। भाजपा के एक बड़े नेता जो कि दिल्ली से सांसद, विधायक और मंत्री तक रह चुके हैं लेकिन जब देश मुसीबत में है तब वो केवल और केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए केजरीवाल सरकार का विरोध करने के लिए धरना दे रहे थे। हम यहां केवल दिल्ली की बात करेंगे क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है और केन्द्र शासित राज्य होने के साथ ही देश की संसद का यहां होना भी गौरव प्राप्त किये हुए है। दिल्ली में दिल्ली नगर निगम पर पूरी तरह से भाजपा का कब्जा है। पिछली पंचवर्षीय योजना में भी दिल्ली नगर निगम में भाजपा ही सत्तासीन थी।


दिल्ली की सातों संसदीय सीटें भाजपा के कब्जे में हैं। क्या प्रत्येक सांसद का ये कर्तव्य नहीं था कि वो अपने संसदीय क्षेत्र की सुध ले । हम दूसरे पर अंगुली उठाते समय अपने गिरेबां में झांकना छोड़ देते हैं या फिर झांकते ही नही । और अब तो दिल्ली के लिए गौरव की बात है कि दिल्ली के चांदनी चौक से सांसद डॉ. हर्षवर्धन विश्व स्वास्थ्य संगठन में भी दस्तक दे रहे हैं। भाजपा के पास दिल्ली में तीन सांसद सेलीब्रेटी हैं। जिन्हें धन-बल की कोई कमी नहीं है। मैं सभी के नाम नहीं दे रहा हूँ, दिल्ली की जनता समझदार है। क्या प्रत्येक सांसद का ये कर्तव्य नहीं था कि वो अपने संसदीय क्षेत्र की इस आपदा के समय में जाना और फेसबक और टिवीटर पर अपने फोटो डालना, शायद यही काम रह गया था इन सांसदों का।


डॉ. हर्षवर्धन केन्द्रीय मंत्री हैं उनके ऊपर पूरे देश की जिम्मेदारी है, लेकिन उनके संसदीय क्षेत्र में उनका कोई न कोई प्रतिनिधी तो अवश्य होगा। प्रत्येक क्षेत्र में सांसद प्रतिनिधी के बोर्ड अवश्य दिखाई दे जाते हैं। भारी-भारी वेतन लेने वाले सांसद कैसे अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ सकते हैं वेतन ही उन्हें जनसेवा करने का मिलता है। लेकिन ये जनसेवक कम व्यापारी अधिक दिखाई देते हैं। चुनाव के दौरान जब हम “एक बूथ दस यूथ' का नारा दे सकते हैं तब ऐसे समय में क्या एक मोहल्ले में: क मोहल्ले में दो यवा नहीं पैदा कर सकते, जो कि महल्ले की जिम्मेवारी उठा सके। दिल्ली पलिस व अन्य स्वंयसेवी संगठनों के साथ मिलकर राशन-पानी जैसी सुविधाओं का ध्यान रख सके। प्रत्येक राजनीतिक दल की मंडल के अनुसार अपनी रचना होती है। उसके बावजूद दिल्ली की जनता परेशान है।


गरीबों को राशन के नाम पर भ्रष्टाचार का आलम, ये कैसी सेवा है जिसकी आड़ में मेवा तलाशी जा रही है। घरों में राशन पहुंचाना है, मुहल्ले को सेनेटाइज करना है, मास्क बंटवाने हैं, किसमें कितना बचेगा इसका हिसाब लगाया जा रहा है। अगर ईमानदारी से दिल्ली के सातों सांसद अपने-अपने संसदीय क्षेत्र में अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते तो दिल्ली में कोरोना के कारण होने वाली दशा से बचा जा सकता था।


दिल्ली से मजदूरों के पलायन को रोका जा सकता था। जो जाना भी चाह रहे थे उन्हें या तो रोका जा सकता था या फिर उचित व्यवस्था कर उनके घर भेजा जा सकता था। लेकिन हम तो उलझे रहे तबलीगी जमात को दोषी ठहराने में । ये ठीक है कि तब्लीगी जमात जैसे जलसे दिल्ली में नहीं होने चाहिए थेइसके लिए दिल्ली पलिस, राज्य सरकार और उस क्षेत्र से तिनिधि भी उतने ही जिम्मेवार हैं जितने तब्लीगी जमात का आयोजन करने वाले। ये ठीक है कि दिल्ली सरकार ईमानदारी से अपना काम नहीं कर पा रही है, मानवता ये कहती है कि इस भयंकर आपदा के काल में भाजपा के दिल्ली के सातों सांसदों, विधायकों को दिल्ली सरकार के काम में सहयोग करना चाहिए था ना कि अपनी राजनीतिक रोटियां सेकनी शुरू करनी थी।


अरविन्द केजरीवाल के मुहल्ला क्लीनिक कितने आबाद हैं ये किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए काम तो किया गया है लेकिन क्या वो दिल्ली की आबादी के लिए पर्याप्त था या है ? जिस पर आलम ये कि पड़ोसी राज्य के मरीज भी दिल्ली ही ईलाज के लिए आना चाहते हैं। आयें भी क्यों न दिल्ली देश की राजधानी है अवश्य ही उत्तम ईलाज मिलेगा, ऐसी आशा रहती है। जबकि ऐसा है नहीं। दिल्ली गेट और एम्स, सफदरजंग हस्पतालों के प्रांगण तथा उसके ठीक सामने पटरियों पर बीमार और तीमारदार दोनों की भीड़ देखी जा सकती है।


मेरा व्यक्तिगत मानना है कि हम 5 लीटर की गैलन में 7 लीटर भर रहे है, जो कि उसमें आ ही नहीं सकता। देश की आबादी को देखते हुए हमारे पास संसाधनों का अत्यधिक अभाव है। कोई भी सरकार इस सच्चाई को समझने के लिए तैयार ही नहीं है या फिर समझना ही नहीं चाहती। हो सकता है विश्व के पटल पर देश का मान बढ़ा हो लेकिन हम अपने ही देश में आखिरी आदमी तक पहंच ही नहीं पाये हैं। झठे आंकडे जटाये जाते हैफर्जी आंकडे तैयार किये जाते हैं। यहां तक कि देश की जनसंख्या का भी हमें सही अनमान नही हो सकता इन फर्जी आंकडों के चलते। जिनके कान्धों पर जिम्मेदारियां हैं वो उन्हें झटक कर अपनी जेबें भरने का रास्ता ढूंढते हैं।


दिल्ली से मजदूरों का पलायन केजरीवाल सरकार को तनिक संतोष तो दे गया लेकिन उसकी आड़ में जो खेल खेला गया क्या वो शर्मनाक नहीं था। माननीय अटल जी कहा करते थे कि अच्छी सरकार के लिए मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है, जिसका आज नितान्त अभाव है, लगता भी नहीं कि ये चमत्कार जल्दी होगा।


कहने का तात्पर्य है कि हम केवल और केवल सरकारी कांधों पर देश नहीं चला सकते देश के चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वास्तव में जनप्रतिनिधी बनना होगा। इसका एक ही उपाय है कि इनके भारी-भरकम वेतन और फण्ड बन्द कर दिये जाएं। जनसेवा तो जेब से ही की जाती है, देश के भामाशाहों ने दिखा दिया। मजदूरों को उनके गंतव्य तक पहुंचाना हो या फिर उन्हें भोजन नए धन देना हो। जिस तरह देश के भामाशाह इस आपदा की घड़ी में उठ खड़े हुए काश हमारे पक्ष-विपक्ष के राजनेता भी कन्धे से कन्धा मिलाकर इस आपदा में खड़े हो सकते।