कैदियों की सुरक्षा पर क्यों मौन हैं सरकारें ?


डॉ.नरेश कुमार चौबे ,सन् 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में जेल सुधारों के सभी पहलुओं को देखने और उस पर सुझाव देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जस्टिस अमिताभ रॉय की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था। दरअसल, देश भर के 1,382 जेलों में कैदियों की अमानवीय दशाओं के बारे में 2013 की एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम र्कोर्ट ने समिति के गठन का फेसला लिया थां दरअसल जेलों में क्षमता से अधिक कैदी होने की सबसे बड़ी वजह ज्यादा तादाद में न्यायालयों में लंबित पड़े मामले हैं प्राप्त जानकारी के अनुसार अंडर ट्रायल केसों के मामले में भारत दुनिया का 10वां बड़ा देश हें 31 मार्च 2016 तक के आंकड़ों के अनुसार देश के विभिन्न न्यायालयों में तीन करोड़ से अधिक मामले लंबित थे। जबकि 2019 दिसम्बर तक ये संख्या तीन करोड़ को पार कर चुकी है। 
एनसीआरबी के मुताबिक देश में प्रत्येक तीन जेल कैदियों में से दो ऐसे हैं जिनके केस विचाराधीन यानी अंडर ट्रायल हैं । एनसीआरबी के अनुसार साल 2015 में 67 फीसदी मातले विचाराधीन थे और ऐसे मामलों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो, जेल सुधार का मसला असल में एक मानवीय मसला है। जेल सुधार से यह कहकर मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि उनमें समाज के गुनाहगार रहते हैं। एक सभ्य समाज में जेलों का मकसद अपराधियों को सुधार कर एक बेहतर इंसान बनाना होता है। ऐसे में हमारी सरकारों को चाहिए कि वे जेलों को सुधारने के लिए कुछ ठोस कदम उठायें।
अब सवाल है कि इसके क्या-क्या उपाय हो सकते हैं ? सबसे पहले तो सरकार को सीआरपीसी की धारा 436 और 436 ए को प्रभावी रूप से लागू करने की कोशिश करनी होगी। धारा 436 ए में साफ तौर पर लिखा है कि अगर किसी कैदी का केस विचाराधीन है और अगर उसने कथित अपराध के लिए मिलने वाली सजा का आधा समय जेल में गुजार लिया है तो उसे निजि बॉण्ड पर रिहा कर देना चाहिए। लेकिन अफसोस की बात है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के लिहाज का दावा करने वाली हमारी सरकारें इस बिंदू पर अक्सर मौन रह जाती है। दूसरी तरफ गौर करें तो जेलों में कैदियों की अधिक संख्या का कारण न्यायालयों में लंबित मुकदमे हैं और इसकी सबसे बड़ी वजह जजों की संख्या में कमी है। ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि न केवल जजों की मौजूदा खाली सीटें भरी जाएं, बल्कि जजों की संख्या भी बढ़ाई जाए। 
दरअसल समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय से लेकर कई रिपोर्ट जेलों की दयनीय स्थिति से सरकारों को आगाह करती रहती हैं। लेकिन इसे अनसुना ही कर दिया जाता रहा है। या फिर लीपा पोती करने के लिए किसी ना किसी समिति का गठन कर दिया जाता है। ऐसा लगता है कि सरकारों द्वारा जनहित से जुड़े मुद्दों को अनसुना कर देने की एक परिपाटी सी चल पड़ी है। यह सरकार की नियत पर सवालिया निशान ही तो है कि सर्वोच्च न्यायालय 2016 में जेल सुधार के मसले पर जबाब-तलब करता है। लेकिन एक भी राज्य सरकार इस पर दिलचस्पी नहीं लेती दिखाई देती। सच तो यह है कि आजादी के बाद जेल सुधार के लिए कई समीतियां बनी, मसलन 1983 में मुल्ला समिति, 1986 में कपूर समिति और 1987 में अय्यर समिति। पर इन सारी समीतियों के सुझावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। यही वजह है कि जेलों की हालत बिगड़ती ही चली गई।