डॉ. नरेश कुमार चौबे । आज हम देश की राजधानी दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण और उनकी रोकथाम के उपायों पर भी चर्चा करेंगे। साथ ही हमारी राजनीतिक पार्टिया कितनी संजीदा है, ये भी दिखाने का प्रयास करेंगे
आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि देश की चिन्ता करने वाले सभी कर्णधार और बुद्धिजीवी यहां निवास करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के ताजा आंकड़ों को देखें तो हम पायेंगे कि हमारे देश की राजधानी दिल्ली विश्व में छ: (6) सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में गिनी जाती है। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिल्ली को एक ऐसे गैस चेम्बर की संज्ञा दे डाली, जहां रहना सम्भव ही नहीं है। हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी व दिल्ली के राजनेता हरियाणा, पंजाब व उत्तरप्रदेश के किसानों को दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का जिम्मेदार मानते हैं। ये तथाकथित नेता और बुद्धिजीवी कहते हैं कि किसानों द्वारा पराली जलाए जाने के कारण दिल्ली में प्रदूषण फैलता है। खेतों में पराली व अन्य फसलों के लूंठ जबसे मैंने होश संभाला है जलते देखे हैं। पराली और लूंठ जलने के बाद भी खेत की मिट्टी में जुताई के साथ मिलकर खेत की उर्वरा शक्ति ही बढ़ाते हैं। पराली के जलने से धुंआ तो उड़ता है लेकिन इतना हानिकारक नहीं है जो मानव जीवन को क्षति पहुंचा सके। हम हमारे द्वारा ही पैदा की गई समस्याओं का निवारण करना ही नहीं चाहते। हमेशा दूसरों को दोष देना ही हमारी नियति बन गई है। दिल्ली में भी केजरीवाल सरकार यही काम कर रही है।
केन्द्र सरकार ने बढ़ते प्रदूषण पर चिंता जाहिर करते हुए एक स्वतंत्र संस्था एन जी टी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) का गठन किया। एन जी टी ने गंभीरता के साथ बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए सभी राज्य सरकारों को नोटिस देने शुरू कर दिये । सरकारों ने भी प्रदूषण की समस्या को गम्भीर मानते हुए प्रदूषण के कारणों को ढूंढने का प्रयास किया। तमाम समीतियां बनाई गई। जिन्हें बढ़ते प्रदूषण की जांच का जिम्मा सौंपा गया। दिल्ली सरकार की जांच समिति ने अपनी रिपोर्ट में दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण का कारण पड़ोसी राज्यों में किसानों द्वारा खेतों में जलाई जा रही पराली को एक मुख्य कारण माना। दिल्ली सरकार के मुखिया अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में प्रदूषण के कारण पराली जलाये जाने को लेकर पड़ोसी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी मिलकर अपनी चिंता जता आये। बल्कि केजरीवाल ने जांच समिति की दूसरी बात को भी गंभीरता से लिया। दिल्ली में बढ़ते ट्रैफिक दबाव तथा प्राइवेट एवं डगगामार वाहनों के कारण बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए ओड-ईवन का सहारा लिया। कुछ ने कामयाब बताया तो कुछ ने मूर्खतापूर्ण कदम बताया।
हालांकि इससे बढ़ते प्रदूषण पर तो असर नहीं पड़ा लेकिन सड़कों पर बढ़ता ट्रैफिक का दबाव जरूर कम हुआ। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और बुद्धिजीवी तो यहां तक कहने से नहीं चूकते कि हिन्दुओं की चिताओं में लकड़ी जलाने से भी प्रदूषण होता है। लकड़ी की भी व्यवस्था करो, और वायु प्रदूषण को भी झेलो। इससे अच्छा है विद्युत शवदाह ग्रह । सेकिण्डों में सब काम तमाम!
वास्तव में हमारी जांच समीतियां जो निष्कर्ष देती हैं वो समझ से परे है। कई बार तो जांच समीति में मनोनीत व्यक्तियों के बौद्धिक स्तर पर भी तरस आता है। अक्सर देखा गया है कि हमारा सरकारी तंत्र समिति में आनन-फानन में किन्हीं पांच-सात लोगों को नामित कर देता है जिन्हें विषय और विषय की गंभीरता की भी जानकारी नहीं होती और ना ही इतनी समझ कि विषय को समझ सकें। लेकिन यहां परवाह किसे है, सभी काम राम भरोसे है, जांच तो सरकारी कर्मचारी ने ही करनी है, नामित को तो केवल अपने नाम और नामे की ही चिन्ता होती है।
हम बात करते हैं दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर :
बढ़ती आबादी :- कुछ लोग दिल्ली में बढ़ती आबादी को भी प्रदूषण का कारण मानते हैं। निश्चित रूप से बढ़ती आबादी भी शहर में प्रदूषण बढ़ने का एक मुख्य कारण हो सकती है। 2008 में दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी दिल्ली में बढ़ती जनसंख्या के दबाव पर चिंता जताई थी। लेकिन कुछ राजनीतिक दलों ने श्रीमति दीक्षित के बयान की गंभीरता को ध्यान में न रखकर उसे बिहार और उत्तर प्रदेश से जोड़ लिया थावास्तव में दिल्ली क्षेत्रफल के हिसाब से 4 गुना अधिक आबादी का दबाव झेल रही है। दिल्ली में बढ़ती आबादी अर्थात 5 लीटर की कैन में 7 लीटर पानी भरने की कोशिश करना जैसा है।
दिल्ली देश की राजधानी है, इसे जिस तरह से व्यवस्थित होना चाहिए था, नहीं किया गया। केवल 20 से 30 किलोमीटर के क्षेत्र को हम दिल्ली कह सकते हैं। अन्यथा दिल्ली एक खतरनाक स्लम बन चुकी है। और ये सब राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स की मेहरबानी का नतीजा है। राजनेताओं को वोट चाहिए, ब्यूरोक्रेट्स को नोट चाहिए, अवैध निर्माण और अवैध कालोनियों के लिए। दिल्ली अपनी क्षमता से चार गुना अधिक बोझा उठा रही है और ये बोझ निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। थमने का नाम नहीं ले रहा। दिल्ली में आबादी के बढ़ते दबाव के कारण ही दिल्ली और दिल्ली के आस-पास की कृषि भूमि आज कंकरीट के जंगलों के रूप में विकसित हो चुकी है। कहने का तात्पर्य यह है कि दिल्ली राज्य में कृषि योग्य भूमि वैसे ही कम थी और जो थोड़ी बहुत थी भी वो आज कृषि भूमि न रहकर रिहाईशी क्षेत्रों में तब्दील हो चुकी है। दिल्ली में आबादी के साथ ही ट्रैफिक का दबाव भी बढ़ा । अतः सड़कों का चौड़ीकरण आवश्यक लगा और वो किया भी गयाबला से 100 से 200 साल पुराने पेड़ काटने पड़े। क्योंकि विकास होना था, अतः पेड़ तो काटने ही पड़ते । लेकिन आबदी का दबाव फिर भी नहीं घटा। ट्रैफिक का दबाव भी निरन्तर सुरसा के मुंह की भांति बढ़ता ही जा रहा है। इस दबाव को कम करने के लिए कुछ हजार पेड़ ही तो काटने पड़े, मेट्रो चलाई गई। दिल्ली खोखली कर दी गई। लेकिन दिल्ली पर आबादी, ट्रैफिक का दबाव नहीं घटा। हॉ स्वच्छ हवा का दबाव जरूर घट गया। इस पर तर्क ये कि हम 1 पेड़ काटते हें तो दस पेड़ लगाते हैं। इनसे कोई पूछे कि इन दस पेड़ों में से कितने पेड़ जिन्दा बचते हैं और ये कितने वर्ष में इस लायक होंगे कि परिन्दे इन पर बसेरा कर सके। हमने नई आबादी बसाने के लिए कृषि भूमि की भेंअ चढ़ा दी। यहां तक अपनी जेबे भरने के लिए ग्राम सभा और बाढ़ ग्रस्त इलाकों की जमीनों पर भी आबादी बसा दी।
जाने-अन्जाने में हम दिल्ली को कंकरीट का जंगल बनाते चले गये। हजारों की तादात में पेड़ काटे गये । नयी बसावट और अधिक धन कमाने के लालच में शासन-प्रशासन और कुछ दलालों ने पेड़ों का अवैध कटान कर कंकरीट का शहर बना दिया। सड़कों का चौड़ाकरण, मेट्रो की भेंट भी सैंकड़ों की तादात में वृक्ष चढ़े। जितनी संख्या में जवान पेड़ काटे गये, क्या हम उतने पेड़ लगा पाये । बढ़ती आबादी के कारण नई कालोनियां तो बसनी चाहिए लेकिन व्यवस्थित तरीके से बसाई जाएं। बढ़ती आबादी के कारण बढ़ते कूड़े के पहाड़ भी चिंता का एक बड़ा कारण है। दिल्ली में गाजीपुर और लिबासपुर कूड़े के दो बड़े पहाड़ दिल्ली को मुंह चिढ़ाते रहते हैं। क्योंकि जिस रफ्तार से कूड़ा इकट्ठा होता है, उस रफ्तार से इसके निपटान को कोई विकल्प नहीं निकाला गयाइन लैण्डफिल साइटों के 3 से 4 किलोमीटर के क्षेत्र में गन्दी बदबू के कारण खड़ा होना भी मुश्किल है। कल्पना कीजिए कि इन लैण्डफिल साइटों के आस-पास जो कालोनियां बसी हैं वो कैसे रहते होंगे? क्या उन्हें स्वच्छ वायु मिल पाती होगी? ऐसा नहीं है कि इस बढ़ते प्रदूषण की समस्या को लेकर शासन एवं प्रशासनिक क्षेत्र चिंतित नहीं है। प्रत्येक वर्ष 5 जून को पर्यावरण बचाओ दिवस मनाकर खरबों रूपये की बंदरबांट होती है। करोड़ों रूपया विज्ञापनों में खर्च होता है तो कुछ करोड़ सेमिनार और गोष्ठियों में । पर्यावरण दिवस को किसी विशेष त्यौहार की भांति ही मनाया जाता है। जबकि जो वास्तविक समस्या है उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। जिनके पास पैसा है वो साधन खरीदने में मस्त हैं और जिनके पास नहीं है वो ये सोचकर शांत हैं कि जो सबके साथ होगा, वो ही हमारे साथ होगा।
वास्तविकता भी यही है कि हम सोनामी और केदारनाथ जैसी भंयकर दैविक आपदाओं को भी भुला बैठे हैं। जो कि प्रकृति के अधिक दोहन के कारण ही उत्पन्न हुई त्रासदी थी। जिनमें हजारों जानें काल कलवित हो गयी थींलेकिन हमें भूलने की बीमारी है। हम बड़ी से बड़ी घटनाओं को अति शीघ्र ही भूल जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम समस्या से दूर भागते हैं। उसका सदैव के लिए निस्तारण ही नहीं करना चाहते। जितना हम सेमिनार और गोष्ठियों के नाम पर दिखावा करते है। उसका 25 प्रतिशत भी धरातल पर कार्य करें तो तस्वीर ही अलग होगी। प्राकृतिक संसाधनों में प्राणी मात्र को जीवन देने के लिए प्रकृति ने अनमोल जल उत्पन्न किया है। कहा भी जाता है "जल ही जीवन है"। लेकिन जल के मुख्य स्रोत नदियों की जो हालत है वो किसी से छिपी नहीं है। पूर्वात्तर में ब्रहमपुत्र है तो दक्षिण में मैली होती कावेरी, दत्तीसगढ़ में इन्द्रावती। उत्तराखण्ड में गंगा व उसकी सहायक नदियां तमाम गेस्ट हाउस व शहरों के नालों एवं सीवर की गन्दगी समेटते हुए पहाड़ से धरातल पर आती है। जिस गंगा को पूजनीय और पवित्र माना जाता है। हरिद्वार से लेकर कानपुर तक गंगा वास्तव में हर शहर, गांव की गन्दगी धोते-धोते मैली हो जाती है। जो थोड़ी बहुत बचती भी है उसे कानपुर का चमड़ा उद्योग पूरा कर देता है। वर्षों से कानपुर का चमड़ा उद्योग गंगा को मैली करता आ रहा है, लेकिन शासन-प्रशासन आंखों देखी मक्खी निगल रहे हैं। केन्द्र सरकार द्वारा "नमामि गंगे” के तहत गंगा नदी को साफ एवं स्वच्छ रखने के लिए करोड़ों रूपये के बजट का प्रस्ताव रखा गयालेकिन छ: वर्ष में गंगा कितनी साफ हुई ये जगजाहिर है। केवल गोष्ठियां करने से, समीतियां बनाने से, या फिर फोटो खिंचवाने से प्रदूषित होती गंगा साफ नहीं होने वाली । यदि वास्तव में सरकार गंगा नदी की स्वच्छता को लेकर गंभीर है तब पहले यमुना, हिंडन, सिंधु जैसी नदियों की हालत पहले सुधारनी होगी। यमुना नदी के बढ़ते प्रदूषण की बात करें तो दिल्ली तक आते-आते यमुना नदी एक गंदे नाले में परिवर्तित हो जाती है।
क्रमशः