जेलों में क्षमता से अधिक कैदी, बन्दी चिंताजनक


डॉ. नरेश कुमार चौबे नई दिल्ली। मई 2018 में देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा देश भर में जेलों में क्षमता से अधिक भरे होने चिंता जताई थी। मान्य न्यायालय ने चिंता जताते हुए कहा था कि सभी उच्च न्यायालय इस मामले पर विचार करें, क्योंकि इससे 'मानवाधिकारों का उलंघन हो रहा है। शीर्ष अदालत ने सभी उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से अनुरोध किया था कि वे इस मामले को सवतः रिट याचिका के तौर पर लें और उन्हें एक वकील का नोट भी रेफर किया गया था जो कि इस संबंध में अदालत की न्याय मित्र के तौर पर सहायता कर रहे हैं।


न्यायमर्ति मदन बी. लोकर और न्यायमर्ति दीपक गप्ता की पीठ ने कहा था कि न्याय मित्र की ओर से दिये गये नोट से प्रतीत होता है कि जेल अधिकारी जेलों की क्षमता से अधिक भरने होने के मुद्दे को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं।



इस तरह की कई जेलें हैं जो क्षमता से 100 फीसदी तथा कछ मामलों में तो यह 150 फीसदी से भी अधिक भरी ह कि हमारे विचार में, इस मामले में प्रत्येक उच्च न्यायालय को राज्य विधि सेवा प्राधिकरण/उच्च न्यायालय विधि सेवा समिति की मदद से कि जेलों की क्षमता से अधिक भरे होने के संबंध में कछ समझ आ सके। कयोंकि इसमें मानवाधिकारों का उलंघन शामिल है। पीठ ने कहा था कि शीर्ष अदालत के महासचिव जरूरी कदम उठाने के लिए उच्चतम न्यायालय के आदेश की प्रति प्रत्येक उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को भेजेंगे जो वापस शीर्ष अदालत को रिपोर्ट करेंगे।


शीर्ष अदालत ने जेल में स्टाफ के पद रिक्त होने के मुद्दे को भी देखा था और टिप्पणी की थी कि जेलों में स्टाफ की भर्ती के लिए प्राधिकारी और राज्य सरकारें बहुत कम रूचि दिखा रही है। इसने प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से कहा कि इस मुद्दे को स्वतः रिट याचिका के तौर पर उठायें। किन्तु एक वर्ष से अधिक समय हो गया है ना ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का विधिवत पालन किया गया और ना ही जेलों में न्द बन्दी और कैदियों की संख्या में कोई कमी आयी। इसकी सबसे बड़ी वजह है हमारे देश में जमानत प्रक्रिया ! जो कि बड़ी ही जटिल हैकई बार पैसों के अभाव में तो कई बार निचली अदालतों के गैर जिम्मेदाराना रवैये के कारण व्यक्ति बेवजह सजा काटने पर म होता है। अनेकों मामलों में देखा गया है कि जज साहब ने जमानत तो दे दी, लेकिन जमानत ना भरने के कारण व्यक्ति जेल की रोटियां तोड़ने पर मजबूर है। इसकी कई वजह हैं, जिसमें मुख्यतः दूसरे राज्यों के व्यक्ति अन्य राज्यों में अपनी जमानत का इंतजाम नहीं कर पाते। या फिर कंगाली और मुफलिसी के कारण 5,000 रूपये भी भरने में अपने आपको असहाय पाते हैं। हालांकि जेलों में कल्याण विभाग कुछ केसों में मदद करता है लेकिन वो भी सीमित है। जब तक व्यक्ति जेल से बाहर होता है अपने लिए भाग-दौड़ कर सकता हैलेकिन जेल में बन्द होने के कारण सभी संबंधों से दूर हो जाता है।


आप देखेंगे कि जेलों में जो संख्या बढ़ रही है वो ऐसे ही लोगों की है जो अदालती खचे वहन नहीं कर सकते, महगा वकील नहीं कर सकते। मजबूरी में जेल काटना ही उनका भाग्य बन जाता है। कई बार व्यस्तता और रूखाई भी व्यक्ति को जेल काटने पर मजबूर कर देती है।वस्तुतः होना ये चाहिए कि जेल केवल दोषियों के लिए हो आरोपी को तुरन्त जमानत दे देनी चाहिए हां कुछ ऐसी शर्ते लगाई जायें जिनसे वो भाग ना सके कानून का सही से पालन भी तभी हो सकता है जब व्यक्ति को उसी हिसाब से सहूलियतें दी जायें। लेकिन मेरे देश में केवल एक शिकायत पर आम आदमी को जेल में ठंस दिया जाता है, उसके परिवार का क्या होगा, उसके मान-सम्मान का क्या होगा जैसे प्रश्न नगन्य हो जाते हैं। हम कितने प्रतिशत लोगों को सजा दिला पाते हैं। जितनी लबी चौड़ी फौज हमने कानून का पालन कराने के लिए लगा रखी है उस हिसाब से 4 से 6 प्रतिशत केसों में ही पुलिस सजा दिलाने में कामयाब हो पाती है। अक्सर देखा गया है कि व्यक्ति 2-2 साल जेल में बन्द रहकर आया और आखिर में पता चलता है कि वो अपराधी था ही नही। सबूतों का अभाव पुलिस की अकर्मन्यता ही कही जायेगी। अतः जेलों पर बोझ कम हो, देश की जनता के मौलिक अधिकारों का हनन ना हो इसके लिए आवश्यक है कि जमानती प्रक्रिया को सभी के लिए सरल-सटीक बनाया जाये जज के विवेकाधिकार पर निर्भर न रहकर जमानत आवश्यक कर देनी चाहिए।