डॉ. नरेश कुमार चौबे देहरादून। हैदराबाद पुलिस द्वारा बलात्कार और हत्या के आरोपी चारों युवकों का एनकाउंटर करना कहीं देश में बढ़ती अराजकता की ओर इशारा तो नहीं कर रहा । वाकई एक महिला डॉक्टर के साथ जो भी घटना हुई उसे हमारा समाज हजम नहीं कर पा रहा था। लेकिन इस घटना के पीछे क्या कारण रहे होंगे, क्या कभी इन पर विचार किया गया या किया जायेगा? अगर कानून की भाषा में कहें तो अभी चारों, आरोपी ही थे। उन पर दोषारोपण किया गया था अभी वो दोषी नहीं पाये गये थे, न ही पुलिस ने उन्हें रंगे हाथों नहीं पकड़ा था और न ही इस तरह का कोई साक्ष्य पुलिस के सामने अभी तक आया था। पुलिस सूत्रों का कहना कि उन्होंने अपराध करना स्वीकार कर लिया था। पुलिस कह कहानी पर कितना विश्वास किया जा सकता है क्या ये औचित्यपूर्ण है कि ये सभी जानते हैं, वो तो अवश्य जानते हैं जो पुलिसिया कार्रवाई के कहीं ना कहीं शिकार हुये है।
हैदराबाद पुलिस को इस एनकांटर के बाद जिस तरह से हीरो बना दिया गया, और फूलों की वर्षा की गई, उससे स्पष्ट होता है कि कहीं ना कहीं हम कानून का पालन करने में फेल होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर जिस तरह से इस एनकांटर को लेकर खुशी जाहिर की गई, वो स्वस्थ लोकतंत्र का संदेश नहीं है। एक हम बड़े लोकतांत्रिक देश के वाहक हैं। हमारे संविधान ने दोषियों को भी जीने के अधिकार प्रदान किये है। एक प्रोसीजर है आरोपियों को कानून के कटघरे में खड़ा कर दोषमुक्त या दोषी करार देना। आज हम सवा अरब की आबादी वाले देश के नागरिक हैं। अगर हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं हो पाती या फिर जिनके कंधों पर देश की सुरक्षा की जिममेदारी है, वो अपनी ड्यूटी का सही तरीके से पालन नहीं कर पाते तो दोषी कौन है ? क्या आम जनता? जिसने आपको अपनी सर आंखों पर बैठाया, अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए चुना, क्या उस जनता को ये अधिकार नहीं होना चाहिए कि अगर आप उसकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते तब आपको जनता पर शासन करने का भी अधिकार नहीं होना चाहिए। जिस तरह से इस घटना का राजनीतिकरण किया जा रहा है, वो दिन दूर नहीं जब सड़कों पर कानून के रखवाले भी रक्त रंजित होते दिखाई देंगें
03 नवंबर 2019 की घटना से भी हमने सबक नहीं लिया जिसमें दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों और दिल्ली पुलिस के बीच गुंडई झड़प हुयी थीं जिसमें अनेकों लोग चोटिल हुये थे दिल्ली पुलिस के कुछ कर्मचारियों ने अपने परिवारों के साथ दिल्ली पुलिस मुख्यालय का घिराव भी किया था। जहां दिल्ली पुलिस अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित दिखाई दी थीं। जिस तरह से वकीलों ने सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर एक स्वस्थ लोकतंत्र वाले देश को शर्मशार किया था क्या वो माफी लायक प्रकरण था?
अगर बलात्कार के आरोपियों की ही बात करें तो दाती मदन पर भी बलात्कार के आरोप लगे थे, लेकिन अपने संबंधों के चलते दाती मदन का ना सिर्फ केस दबा दिया गया बल्कि उसे क्लीन चिट दे दी गई। क्या यही कानून और उसके रक्षक, एक आम आदमी के साथ भी इसी तरह का बर्ताव करता है । उन्नांव काण्ड की बात करें तो पीड़िता 06 दिसम्बर 2019 की रात्रि में दम तोड़ देती है हैदराबाद का घाव ताजा था अतः हैदराबाद पुलिस की तर्ज पर उन्नांव के दोषियों को भी सजा देने की मांग उठने लगी। ये ठीक है कि उन्नांव का आरोपी राजनीतिक हस्ती है इसलिए तमाम रसूखों का प्रयोग करते हुए काफी समय तक बचता रहा। लेकिन अब तो अदालत के रहमो-करम पर है, और फिर अदालत अपना काम करेगी। आवश्यकता है तो इस बात की कि नियमित सुनवाई कर मामले को जल्दी निबटाया जाये, लटकाया न जाये । साक्षी महाराज और न जाने कितने राजनीतिक रसूख वाले लोग अपनी ऊंची पहुंच के कारण कानून के शिकंजे से बचते रहते हैं। देश में मांग उठ रही है कि हैदराबाद की तर्ज पर उन्नांव काण्ड के आरोपियों को भी सजा दो । मांग करने वाले ये भूल रहे हैं कि वो एक स्वतंत्र व सभ्य समाज के अंग हैं। एक प्रावधान है, जिसके तहत कानून संम्मत कार्रवाई की जाती हैपुलिस को सजा देने का अधिकार ना तो पहले था और ना ही आज है।
हमेशा पुलिस अपने अधिकारों का दुरूपयोग करती रही हैकई बार तो ऐसा लगता है जैसे पुलिस हमारी रक्षक ना होकर भक्षक हो। ये पैसे के लिए कुछ भी कर गुजरने से नहीं चूकते। दिल्ली पुलिस के तेज तर्रार ए.सी.पी द्वारा दिल्ली के कनॉट प्लेस का फर्जी एनकांटर, देहरादून में उत्तराखण्ड पुलिस द्वारा फर्जी एनकाउंटर, ये तो मात्र दो उदाहरण है, जिनमें आरोपित पुलिस के जवान सजा भी काट रहे हैं। भारत की पुलिस के नाम पर अनेकों फर्जी एनकाउंटर दर्ज हैं। पुलिस का काम है कानून व्यवस्था बनाये रखना जो कि वो भी सही ढंग से नहीं कर पा रही है। पुलिस तंत्र को भ्रष्ट तंत्र की संज्ञा दी जाने लगी है, हो भी क्यों न पुलिस के सताये हुये बेगुनाह लोग आज भी आपको जेल की सलाखों के पीछे मिल जायेंगे।
वास्तव में जिस तरह के आरोप हैदराबाद काण्ड के आरोपियों पर लगे थे वो माफी लायक नहीं थे, लेकिन हैदराबाद पुलिस ने जो किया वो भी माफी लायक नहीं होना चाहिए दरअसल हम देश की जनता को एक स्वस्थ माहौल दे ही नहीं पा रहे। इसकी सबसे बड़ी वजह है, संसाधनों का अभाव । हम पांच लीटर के बर्तन मे 7 लीटर भरने की बेकार कोशिश कर रहे हैं। हमारे देश की कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल और बोरिंग है कि व्यक्ति बूढ़ा हो जाता है या फिर इंतजार करते-करते दूसरी दुनिया में पहुंच जाता है, लेकिन न्याय नहीं मिल पाता लोअर कोर्ट, सेशन कोर्ट, हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट यहीं बस नहीं है इसके बाद भी राज्यपाल और राष्ट्रपति इन सबमें ही बीस से पच्चीस साल लग जाते हैं। दिल्ली के निर्भया काण्ड को देखकर ही अन्दाजा लगाया जा सकता हैं । सरकारें बदल गई लेकिन अभी मामला राष्ट्रपति की चौखट पर अटका है।
प्रश्न एक ही है क्या देश की आबादी के अनुपात में हम संसाधन जुटा सकते है ? क्या हम अपनी पुलिस को ईमानदार बना सकते हैं क्या देश के संवैधानिक पदों पर बैठे हए लोगों की जिम्मेदारियां तय की जा सकती हैं ? अंग्रेजी में एक शब्द है Accountibility जब तक संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की जिम्मेदारियां तय नहीं होंगी तब तक अराजकता का अंदेशा बना ही रहेगा। सिटिजन एंटर, एकाउंटिबिल्टी जैसे शब्द शायद कहीं दब कर रह गये है। देश को अराजकता की आग में मत झोंको, न्याय के मंदिर बने हुये हैं उन्हें और अधिक मजबूत बनाओ। कानून और 1860 के पुलिसिया कानून में आमूल-चूल परिवर्तन की आज आवश्यकता है।